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ग़ज़ल
वो कहाँ ताज कहाँ तख़्त कहाँ माल ओ मनाल
क़ाबिल अब भीक के भी कासा-ए-फ़ग़्फ़ूर नहीं
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
ग़ज़ल
अगर उस ज़ुल्फ़-मुश्क-आमेज़ सें चीनी में बाल आवे
अजब नें इत्र-ए-अम्बर कासा-ए-फ़ग़्फ़ूर सें टपके
आरिफ़ुद्दीन आजिज़
ग़ज़ल
मज्लिस-ए-हुस्न में पहुँचे जो कोई तो देखे
कासा-ए-बादा-ए-गुल-रंग धरा होता है
अब्दुल क़ादिर अहक़र अज़ीजज़ि
ग़ज़ल
बैठा हो जहाँ पास सुलैमान के आसिफ़
वाँ क्यूँ न झुकी क़ैसर ओ फ़ग़्फ़ूर की गर्दन