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ग़ज़ल
कभी सुरमई कभी आतिशी कभी नुक़रई कभी कासनी
किसी एक रंग में रह के जी ही लगाना हो कहीं यूँ न हो
साबिर ज़फ़र
ग़ज़ल
शाम की ठंडी रुत ने भरे हैं आब-ए-हयात से नैन
मोंगरों वाले बाग़ ने ओढ़ी गहरी कासनी शाल
अली अकबर नातिक़
ग़ज़ल
मय-कदे में क्या तकल्लुफ़ मय-कशी में क्या हिजाब
बज़्म-ए-साक़ी में अदब आदाब मत देखा करो