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ग़ज़ल
हिसें आँचल में पिन्हाँ कहकशाएँ रात होने पर
घनी ज़ुल्फ़ों पे रक़्साँ दिलरुबा मंज़र बनाती हैं
ज़ाकिर ख़ान ज़ाकिर
ग़ज़ल
वो और होंगे नुफ़ूस बे-दिल जो कहकशाएँ शुमारते हैं
ये रात है पूरे चाँद की हम तिरी मोहब्बत हिसारते हैं
साबिर
ग़ज़ल
सेहन-ए-आलम में इक दूरबीं से उलझता हूँ मैं रात भर
कहकशाएँ हैं या जुगनुओं के बसेरे हैं इस शहर में
आबिद रज़ा
ग़ज़ल
तुम्हारी कहकशाएँ कौन सी दुनिया का परतव हैं
यहाँ तो चाँद है बादल है तारे हैं वहाँ क्या है
साइमा ज़ैदी
ग़ज़ल
बहुत सी जम' कर रक्खी थीं उस ने कहकशाएँ
मैं रोया तो मुझे इक क़ाश सूरज की मिली थी