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ग़ज़ल
कुछ जमाल-ए-कम-ओ-कज-बीनी-ए-ख़ुश-चश्म भी है
सब तिरा हुस्न-ए-नज़र हो ये ज़रूरी तो नहीं
हादिस सलसाल
ग़ज़ल
हदें फैलीं नज़र की फिर भी कम-बीनी नहीं जाती
कि हर सूरत अभी एक आँख से देखी नहीं जाती
इज्तिबा रिज़वी
ग़ज़ल
उस की बातें क्या करते हो वो लफ़्ज़ों का बानी था
उस के कितने लहजे थे और हर लहजा ला-फ़ानी था
शहपर रसूल
ग़ज़ल
जब कोई ग़ुंचा चमन का बिन खिले मुरझाए है
क्या कहें क्या क्या चमन वालों को रोना आए है