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ग़ज़ल
जंग-जूई क्या कहूँ उस की कि कल-परसों में आह
सुल्ह टुक होने न पाई थी कि झगड़ा पड़ गया
जुरअत क़लंदर बख़्श
ग़ज़ल
दिल उड़े जाते हैं हर फ़ितना-ए-आवाज़ के साथ
बैठ कर पर्दों में इक हश्र उठा रक्खा है