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ग़ज़ल
मोहब्बत ख़ून बन कर जिस्म में दौड़े तो क्या कहना
बस इतना कह दिया बाक़ी कलाम-ए-'मीर' पढ़ लेना
मोहम्मद आज़म
ग़ज़ल
हमें मज़मून लिखना था मोहब्बत और वहशत पे
सो लिख आए थे हम भी फिर कलाम-ए-'मीर' काग़ज़ पर
अरीब उस्मानी
ग़ज़ल
दिल्ली का मर्सिया हो या दिल में वुफ़ूर-ए-ग़म
देखें कलाम-ए-'मीर' को क्या इस की शान है