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ग़ज़ल
बहुत ही पर्दे में इज़हार-ए-आरज़ू करते
निगाहें कहती हैं हम उन से गुफ़्तुगू करते
रियाज़ ख़ैराबादी
ग़ज़ल
मैं समझा जब झलकता सामने जाम-ए-शराब आया
मिरा मुँह चूमने शायद मिरा मस्त-ए-शबाब आया
रियाज़ ख़ैराबादी
ग़ज़ल
सुब्ह-ए-महशर भी गवारा नहीं फ़ुर्क़त मेरी
मुझ से रह रह के लिपट जाती है तुर्बत में
रियाज़ ख़ैराबादी
ग़ज़ल
फ़रियाद-ए-जुनूँ और है बुलबुल की फ़ुग़ाँ और
सहरा की ज़बाँ और है गुलशन की ज़बाँ और