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ग़ज़ल
बे-सम्त चले तो हैं लेकिन हम जानते हैं अंजाम-ए-सफ़र
बेकार है जी को कल़्पाना दो-चार घड़ी चलना ही तो है
कुमार पाशी
ग़ज़ल
मोहब्बत ना-समझ होती है समझाना ज़रूरी है
जो दिल में है उसे आँखों से कहलाना ज़रूरी है
वसीम बरेलवी
ग़ज़ल
था दरबार-ए-कलाँ भी उस का नौबत-ख़ाना उस का था
थी मेरे दिल की जो रानी अमरोहे की रानी थी
जौन एलिया
ग़ज़ल
वही दिल है जो हुस्न-ओ-इश्क़ का काशाना हो जाए
वो सर है जो किसी की तेग़ का नज़राना हो जाए