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ग़ज़ल
फिर मेरी कमंद उस ने डाले ही तुड़ाई है
वो आहु-ए-रम-ख़ुर्दा फिर राम नहीं होता
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
ये भी क़ैदी हो गया आख़िर कमंद-ए-ज़ुल्फ़ का
ले असीरों में तिरे 'आज़ाद' शामिल हो गया