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ग़ज़ल
होंगी तो इस रह-गुज़र में भी कमीं-गाहें हज़ार
फिर भी ये बार-ए-सफ़र क्यूँ हो मुझे दुश्वार अभी
हबीब तनवीर
ग़ज़ल
मुक़द्दस दर्स-गाहों की हरम की और शिवालों की
अंधेरे में क़सम खाती है ये दुनिया उजालों की
ज़हीर आलम
ग़ज़ल
इलाही दिल को मेरे कुछ ख़ुशी होती तो अच्छा था
लबों पर आह के बदले हँसी होती तो अच्छा था
मीर यासीन अली ख़ाँ
ग़ज़ल
जो दर्द में न हुई कुछ कमी तो क्या होगा
ग़मों से चूर रही ज़िंदगी तो क्या होगा