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ग़ज़ल
देख ले मेरी मय्यत का मंज़र लोग कांधा बदलते चले हैं
एक तेरी भी डोली चली है कोई कांधा बदलता नहीं है
फ़ना बुलंदशहरी
ग़ज़ल
तुम्हारे बाद अब जिस का भी जी चाहे मुझे रख ले
जनाज़ा अपनी मर्ज़ी से कहाँ कांधा बदलता है
वसीम नादिर
ग़ज़ल
उठाना ख़ुद ही पड़ता है थका टूटा बदन 'फ़ख़री'
कि जब तक साँस चलती है कोई कंधा नहीं देता
ज़ाहिद फख़री
ग़ज़ल
दिया मेरे जनाज़े को जो कांधा उस परी-रू ने
गुमाँ है तख़्ता-ए-ताबूत पर तख़्त-ए-सुलैमाँ का
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
चाहतों की उँगलियों ने उस का कांधा छू लिया
सोने चाँदी मोतियों का हार छोटा पड़ गया