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ग़ज़ल
हज़ारों दीदा-ओ-दिल-ए-बाम लाखों तूर से बढ़ कर
करोड़ों जल्वा-गाहें शौक़ तो हो ख़ुद-नुमाई का
रियाज़ ख़ैराबादी
ग़ज़ल
करोड़ों का है ठेका ख़र्च होते हैं मगर लाखों
ये बंदर-बाँट सरकारी तो पहले से भी बढ़ कर है
कृष्ण प्रवेज़
ग़ज़ल
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
सिकंदर और दारा क्या करोड़ों और भी उन से
पड़े हैं गोर के तख़्ते से ज़ेर-ए-ख़ाकदाँ लिपटे
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
हज़ारों राज़ निहाँ हैं दहन के पर्दे में
करोड़ों नुक्ते हैं इक इक सुख़न के पर्दे में
शाह अकबर दानापुरी
ग़ज़ल
ग़म की बस्ती में करोड़ों चाक-दामान-ए-अलम
ज़ीस्त के हर दौर में फ़िक्र-ए-रफ़ू करते रहे