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ग़ज़ल
हुजूम-ए-रंज-ओ-अलम है ये नीम-जाँ के लिए
जफ़ा वो करते हैं 'आशिक़ पे इम्तिहाँ के लिए
जमीला ख़ुदा बख़्श
ग़ज़ल
ग़म-ओ-रंज-ओ-अलम के दरमियाँ रहना ही पड़ता है
जहाँ रक्खे ख़ुदा ऐ दिल वहाँ रहना ही पड़ता है
राम परशाद शारदा
ग़ज़ल
इश्क़ के मय-कदे में आ रंज-ओ-अलम को भूल जा
शीशा-ए-मय है सामने शिद्दत-ए-ग़म को भूल जा