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ग़ज़ल
वो जो कबूतर उस मूखे में रहते थे किस देस उड़े
एक का नाम नवाज़िंदा था और इक का बाज़िंदा था
जौन एलिया
ग़ज़ल
शाम हुए ख़ुश-बाश यहाँ के मेरे पास आ जाते हैं
मेरे बुझने का नज़्ज़ारा करने आ जाते होंगे
जौन एलिया
ग़ज़ल
निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
बहुत बे-आबरू हो कर तिरे कूचे से हम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
कोयल कव्वा चील कबूतर तोता मैना चिड़िया मोर
शाम ढले सब चुप चुप बैठे इक दूजे को तकते हैं
दानिश अज़ीज़
ग़ज़ल
अज़ाएम शल क़वा मफ़्लूज दिल बे-कार हो जाए
अगर आसानियाँ हों ज़िंदगी दुश्वार हो जाए