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ग़ज़ल
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
ज़ख़्म-ए-दिल बोले मिरे दिल के नमक-ख़्वारों से
लो भला कुछ तो मोहब्बत का मज़ा याद रहे
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
ख़ुदा के घर में क्या है काम ज़ाहिद बादा-ख़्वारों का
जिन्हें मिलती नहीं वो तिश्ना-ए-ज़मज़म भी होते हैं
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
गली-कूचों में चौराहों पे या बस की क़तारों में
मैं उस चुप-चाप सी लड़की को अक्सर देख लेता हूँ
मोहम्मद अल्वी
ग़ज़ल
मजबूरी-ए-साक़ी भी ऐ तिश्ना-लबो समझो
वाइज़ का ये मंशा है मय-ख़्वारों में चल जाए