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ग़ज़ल
क़श्क़ा खींचो दैर में बैठो पैरवी-ए-असनाम करो
केश-ए-बरहमन को अपनाओ जुर्म-ए-वफ़ा को आम करो
शाहिद इश्क़ी
ग़ज़ल
जो मौज सर को पटकती रही है साहिल से
उसी को रू-कश-ए-तूफ़ाँ बना दिया हम ने
सय्यद नवाब हैदर नक़वी राही
ग़ज़ल
अजब उस जल्वा-ए-यकता में नैरंग-ए-तमाशा है
नई सूरत से चमका ख़ातिर-ए-शेख़-ओ-बरहमन पर