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ग़ज़ल
गरचे हूँ दीवाना पर क्यूँ दोस्त का खाऊँ फ़रेब
आस्तीं में दशना पिन्हाँ हाथ में नश्तर खुला
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
जब चला वो मुझ को बिस्मिल ख़ूँ में ग़लताँ छोड़ कर
क्या ही पछताता था मैं क़ातिल का दामाँ छोड़ कर
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
ये और बात कि दौलत है मेरे पास मगर
मैं भीक माँग के खाऊँ किसी के बाप का क्या
वहिद अंसारी बुरहानपुरी
ग़ज़ल
तेरी खेती पे मेरा गुज़ारा नहीं भूक मिटती नहीं
जी में आता है मैं बेच खाऊँ तुझे मुख़्तसर ज़िंदगी