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ग़ज़ल
हुई जिन से तवक़्क़ो' ख़स्तगी की दाद पाने की
वो हम से भी ज़ियादा ख़स्ता-ए-तेग़-ए-सितम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
कहीं दिल की लगावट को जो यूँ सूझे कि तक जा कर
क़दीमी यार से अपने भी ख़ल्ता कोई दम कीजिए
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
मैं मो'तरिफ़-ए-जुर्म-ए-इज़हार-ए-सदाक़त हूँ
ये तर्ज़-ए-हयात अब क्यों अहबाब को खलता है
तालिब महमूद
ग़ज़ल
'ग़ालिब'-ए-ख़स्ता के बग़ैर कौन से काम बंद हैं
रोइए ज़ार ज़ार क्या कीजिए हाए हाए क्यूँ