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ग़ज़ल
साबिर ज़फ़र
ग़ज़ल
तिरे हुस्न पे फ़िदा हूँ तिरे इश्क़ में 'फ़ना' हूँ
मुझे तेरी आरज़ू है मिरी ख़ल्वतों में आ जा
फ़ना बुलंदशहरी
ग़ज़ल
मिरी ख़ल्वतों की ये जन्नतें कई बार सज के उजड़ गईं
मुझे बारहा ये हुआ गुमाँ कि तुम आ रहे हो कशाँ कशाँ
इक़बाल अज़ीम
ग़ज़ल
ऐ 'फ़िराक़' उठती हैं हैरत की निगाहें बा-अदब
उस के दिल की ख़ल्वतों में हो रहा हूँ बारयाब