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ग़ज़ल
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
तिरे ख़ानुमाँ-ख़राबों का चमन कोई न सहरा
ये जहाँ भी बैठ जाएँ वहीं इन की बारगाहें
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
ज़मानों के ख़राबों में उतर कर देख लेता हूँ
पुराने जंगलों में भी समुंदर देख लेता हूँ
साक़ी फ़ारुक़ी
ग़ज़ल
तू ही उतरेगा ख़राबों में फ़राज़-ए-अर्श से
हम तो बेहिस हो चुके हैं अब ये मंज़र देख कर
सरमद सहबाई
ग़ज़ल
हम अपने घर में भी अब बे-सर-ओ-सामाँ से रहते हैं
हमारे सिलसिले ख़ाना-ख़राबों से निकल आए