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ग़ज़ल
थी लिखाई भी उसी की दस्तख़त भी उस के थे
क्यूँ ख़त-ए-तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ ग़ैर का लिक्खा लगा
आर पी शोख़
ग़ज़ल
अज़ीज़-ओ-अक़रिबा पर बे-सबब वो ज़ुल्म ढाता है
ख़ता-वार-ए-मोहब्बत तो हमीं हैं सब से क्या मतलब
नूह नारवी
ग़ज़ल
दाग़ खा खा कर हज़ारों दिल लहू हो हो गए
कल खुली पहनीं जो तुम ने अर्ग़वानी चूड़ियाँ
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
ग़ज़ल
लिखा जो मुश्क-ए-ख़ता ज़ुल्फ़ को तो बल खा कर
कहा ख़ता की जो ये हर्फ़-ए-ना-सवाब लिखा