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ग़ज़ल
ख़ुद-ग़र्ज़ हो के अपनों के ग़म-ख़्वार ही रहो
इस पार आ गए हो तो इस पार ही रहो
अब्दुल्लाह मिन्हाज ख़ान
ग़ज़ल
बड़ी तब्दीलियाँ होती हैं उल्फ़त उन से होने पर
ज़मीर-ए-ख़ुद-ग़र्ज़ का साज़-ए-बे-आवाज़ होता है
जितेन्द्र मोहन सिन्हा रहबर
ग़ज़ल
बहुत नज़दीक से ख़ुद-ग़र्ज़ दुनिया देख ली हम ने
जिसे जैसा समझते थे वही वैसा नहीं निकला
देवेश दीक्षित देव
ग़ज़ल
सहारा बन नहीं पाते भले ख़ुद-ग़र्ज़ कुछ बच्चे
मुसीबत हो मगर इन पे तो माँ ग़मगीन होती है
डॉ भावना श्रीवास्तव
ग़ज़ल
ख़ुदा गर मेरे हाथों में दिलासे की चिलम भरता
मैं अहल-ए-हिज्र के ठंडे पड़े सीनों में दम भरता
आशू मिश्रा
ग़ज़ल
है कितनी ख़ुद-ग़रज़ मक्कार दुनिया हम ने देखा है
ख़ुद अपनी ही तबाही का तमाशा हम ने देखा है
Meem Sheen Najmi
ग़ज़ल
ख़ुद-सर था ख़ुद-ग़रज़ भी था वो बदमिज़ाज भी
ठुकरा चुका है इस लिए उस को समाज भी