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ग़ज़ल
दुनिया तो दे रही थी तन-आसानियाँ बहुत
हम क्या करें कि हम में थीं ख़ुद्दारियाँ बहुत
मुहम्मद रज़ा हैदरी
ग़ज़ल
मता-ए-बे-बहा आँसू ज़मीं में बो दिया था
पलट कर जब तिरा घर मैं ने देखा रो दिया था
मोहम्मद इज़हारुल हक़
ग़ज़ल
ख़िज़ाँ तुझ पर ये कैसा बर्ग-ओ-बार आने लगा है
मुझे अब मौसमों पर ए'तिबार आने लगा है
मोहम्मद इज़हारुल हक़
ग़ज़ल
वो हर्फ़-ओ-नक़्श से ख़ाली किताब माँगता है
सवाल करता नहीं है जवाब माँगता है