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ग़ज़ल
चुभें आँखों में भी और रूह में भी दर्द की किर्चें
मिरा दिल इस तरह तोड़ो के आईना बधाई दे
नक़्श लायलपुरी
ग़ज़ल
आँखें और चुनेंगी कब तक आख़िर मंज़र की किर्चें
मुझ में तो अब जैसे अपनी नज़रों की भी ताब नहीं
फ़ैसल अज़ीम
ग़ज़ल
आँख में ख़्वाब की किर्चें थीं सो तू ने चुन लीं
पर जो इक क़तरा-ए-ख़ूँ था सो अभी बाक़ी है
वजीह सानी
ग़ज़ल
वक़्त का रोना रोने वाले वक़्त को ज़ाए करते हैं
पलकों से लम्हों की किर्चें चुनने का सामान करें
शाकिर ख़लीक़
ग़ज़ल
टूटा माज़ी का आईना यादों की बिखरी किर्चें
ज़ेहन के ज़ख़्मी तलवे अब हैं चलने से बेज़ार बहुत
वहीद अर्शी
ग़ज़ल
आँख में चुभने लगीं किर्चें तो एहसास हुआ
ख़्वाब के साथ मिरा ख़्वाब-नुमा टूट गया