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ग़ज़ल
मुझ को भी जल्वा दिखा मालिक तू कोह-ए-तूर का
माना मैं मूसा नहीं 'आशिक़ हूँ तेरे नूर का
रोहित राही
ग़ज़ल
छेड़ा है मैं ने क़िस्सा-ए-मूसा-ओ-कोह-ए-तूर
उस को है वहम ये भी मिरी दास्ताँ न हो
हबीब अहमद सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
बंद क्यूँ अश्क न हों तब्-ए-रवाँ से ऐ 'तूर'
वो भी तो सूरत-ए-अफ़्लाक नहीं खुलता कुछ