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ग़ज़ल
उन की चाह में क़र्या क़र्या बस्ती बस्ती घूम लिए
उन की चाह में कोने खुदरे छान लिए सहराओं के
इफ़्तिख़ार हैदर
ग़ज़ल
या ध्यान के कोने-खुदरे में यादों की तरह से पड़ रहना
या आँख झपकते मंज़र से ख़्वाबों की तरह गुम हो जाना
इशरत आफ़रीं
ग़ज़ल
यास मकान-ए-दिल से निकल कर कोने कोने जलने वाली
दरमाँदा सी लौट आई है रात है शायद ढलने वाली
एम कोठियावी राही
ग़ज़ल
होश-ओ-हिम्मत-आज़मा शान-ए-तजम्मुल क्यों नहीं
वो किसी का आश्नायाना तग़ाफ़ुल क्यों नहीं