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ग़ज़ल
जहान भर की तमाम आँखें निचोड़ कर जितना नम बनेगा
ये कुल मिला कर भी हिज्र की रात मेरे गिर्ये से कम बनेगा
उमैर नजमी
ग़ज़ल
वो दाना-ए-सुबुल ख़त्मुर-रुसुल मौला-ए-कुल जिस ने
ग़ुबार-ए-राह को बख़्शा फ़रोग़-ए-वादी-ए-सीना
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
रूह-ए-कुल से सब रूहों पर वस्ल की हसरत तारी है
इक सर-ए-हिकमत बरपा है अल्लाह-हू के बाड़े में
जौन एलिया
ग़ज़ल
रिंद ख़ाली हाथ बैठे हैं उड़ा कर जुज़्व ओ कुल
अब न कुछ शीशे में है बाक़ी न पैमाने में है