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ग़ज़ल
सरज़द हम से बे-अदबी तो वहशत में भी कम ही हुई
कोसों उस की ओर गए पर सज्दा हर हर गाम किया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
बहार-ए-गुल में दीवानों का सहरा में परा होता
जिधर उठती नज़र कोसों तलक जंगल हरा होता
चकबस्त बृज नारायण
ग़ज़ल
ज़रूरत क्या किसी को इस तरफ़ हो कर गुज़रने की
अलग ऐ बेकसी बस्ती से है कोसों मज़ार अपना
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
जंगल जंगल घूमने वाला अपने ध्यान की दस्तक से
कोसों दूर इक घर में किसी को सारी रात जगाता है
साबिर वसीम
ग़ज़ल
जब उठाया पाँव 'आतिश' मिस्ल-ए-आवाज़-ए-जरस
कोसों पीछे छोड़ कर मैं क़ाफ़िला जाता रहा
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
ये इज़्तिराब-ए-शौक़ है 'अख़्तर' कि गुमरही
मैं अपने क़ाफ़िले से हूँ कोसों बढ़ा हुआ