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ग़ज़ल
ग़ैर की बज़्म के मुहताज नहीं हम 'रासिख़'
शाद-ओ-आबाद रहे कुलबा-ए-अहज़ाँ अपना
मोहम्मद यूसुफ़ रासिख़
ग़ज़ल
घर तू ने रक़ीबों का न ऐ आह जलाया
फिर क्या जो मिरे कुलबा-ए-इहजां में लगी आग
मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल
ग़ज़ल
हो गया आज मिरा कुलबा-ए-अहज़ाँ रौशन
उन के आने से मकाँ रश्क-ए-फ़लक है कि नहीं
हैदर हुसैन फ़िज़ा लखनवी
ग़ज़ल
पाँव मेरा कल्बा-ए-अहज़ाँ में अब रहता नहीं
रफ़्ता रफ़्ता उस तरफ़ जाने की मुझ को लत हुई
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
किस की आमद आमद अपने कल्बा-ए-अहज़ाँ में है
पेशवाई को है दिल पहलू से रुख़्सत माँगता
आग़ा अकबराबादी
ग़ज़ल
इस गिर्या-ए-ख़ूनीं की दौलत से 'नज़ीर' अपने
अब कल्बा-ए-अहज़ाँ में कुल फ़र्श है अतलस का
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
हमारा कल्बा-ए-अहज़ाँ है हम हैं या किताबें हैं
रहा बाक़ी न कोई हम-नशीं अब अपनी क़िस्मत का
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
इस कल्बा-ए-अहज़ाँ से हरगिज़ उभरेगा न सूरज कोई भी
कब ख़ाक सितारा-बार हुई कब साए सहर-आसार हुए
मुशफ़िक़ ख़्वाजा
ग़ज़ल
इस कल्बा-ए-अहज़ाँ से हरगिज़ उभरेगा न सूरज कोई भी
कब ख़ाक सितारा-बार हुई कब साए सहर-आसार हुए
मुशफ़िक़ ख़्वाजा
ग़ज़ल
वाह क्या कहना है तेरा ऐ ख़याल-ए-हुस्न-ए-यार
कुलबा-ए-तारीक में तू ने उजाला कर दिया