aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
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शहीद-ए-शब फ़क़त अहमद-'फ़राज़' ही तो नहींकि जो चराग़-ब-कफ़ था वही निशाना हुआ
रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आआ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ
तेरी बातें ही सुनाने आएदोस्त भी दिल ही दुखाने आए
गुफ़्तुगू अच्छी लगी ज़ौक़-ए-नज़र अच्छा लगामुद्दतों के बाद कोई हम-सफ़र अच्छा लगा
सब लोग लिए संग-ए-मलामत निकल आएकिस शहर में हम अहल-ए-मोहब्बत निकल आए
तेरे क़रीब आ के बड़ी उलझनों में हूँमैं दुश्मनों में हूँ कि तिरे दोस्तों में हूँ
दिल बदन का शरीक-ए-हाल कहाँहिज्र फिर हिज्र है विसाल कहाँ
अब के तजदीद-ए-वफ़ा का नहीं इम्काँ जानाँयाद क्या तुझ को दिलाएँ तिरा पैमाँ जानाँ
जिस्म शो'ला है जभी जामा-ए-सादा पहनामेरे सूरज ने भी बादल का लबादा पहना
ग़ैरत-ए-इश्क़ सलामत थी अना ज़िंदा थीवो भी दिन थे कि रह-ओ-रस्म-ए-वफ़ा ज़िंदा थी
हर आश्ना में कहाँ ख़ू-ए-मेहरमाना वोकि बेवफ़ा था मगर दोस्त था पुराना वो
हर कोई तुर्रा-ए-पेचाक पहन कर निकलाएक मैं पैरहन-ए-ख़ाक पहन कर निकला
तपते सहराओं पे गरजा सर-ए-दरिया बरसाथी तलब किस को मगर अब्र कहाँ जा बरसा
उस ने सुकूत-ए-शब में भी अपना पयाम रख दियाहिज्र की रात बाम पर माह-ए-तमाम रख दिया
सू-ए-फ़लक न जानिब-ए-महताब देखनाइस शहर-ए-दिल-नवाज़ के आदाब देखना
तुझे है मश्क़-ए-सितम का मलाल वैसे हीहमारी जान थी जाँ पर वबाल वैसे ही
ख़ामोश हो क्यूँ दाद-ए-जफ़ा क्यूँ नहीं देतेबिस्मिल हो तो क़ातिल को दुआ क्यूँ नहीं देते
अजब जुनून-ए-मसाफ़त में घर से निकला थाख़बर नहीं है कि सूरज किधर से निकला था
गिला फ़ुज़ूल था अहद-ए-वफ़ा के होते हुएसो चुप रहा सितम-ए-ना-रवा के होते हुए
तरस रहा हूँ मगर तू नज़र न आ मुझ कोकि ख़ुद जुदा है तू मुझ से न कर जुदा मुझ को
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