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ग़ज़ल
कुंज-ए-ग़ुर्बत मैं कभी गोशा-ए-ज़िंदाँ में थे हम
जान-ए-जाँ जब भी तिरे आने का मौसम आया
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
ये है 'सीमाब' इक ना-गुफ़्ता ब-अफ़्साना क्या कहिए
वतन से कुंज-ए-ग़ुर्बत में चले आने पे क्या गुज़री
सीमाब अकबराबादी
ग़ज़ल
कुंज-ए-ग़ुर्बत में 'मुज़फ़्फ़र' ने ग़नीमत समझा
जिस क़दर भी वो हुआ बे-सर-ओ-सामाँ जानाँ
मुज़फ्फ़र अहमद मुज़फ्फ़र
ग़ज़ल
उन से बहार ओ बाग़ की बातें कर के जी को दुखाना क्या
जिन को एक ज़माना गुज़रा कुंज-ए-क़फ़स में राम हुए
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
मुद्दतों के बाद फिर कुंज-ए-हिरा रौशन हुआ
किस के लब पर देखना हर्फ़-ए-दुआ रौशन हुआ
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
जो भी हैं सुब्ह-ए-वतन ही के परस्तारों में हैं
किन से हम ऐ शाम-ए-ग़ुर्बत तेरा अफ़्साना कहें
कँवल एम ए
ग़ज़ल
मिरा जी जलता है उस बुलबुल-ए-बेकस की ग़ुर्बत पर
कि जिन ने आसरे पर गुल के छोड़ा आशियाँ अपना
मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ
ग़ज़ल
कभी तो सुब्ह तिरे कुंज-ए-लब से हो आग़ाज़
कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुश्क-बार चले
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
'जमील' इक ग़म-फ़रोश-ए-वादी-ए-ग़ुर्बत सही लेकिन
तुम्हारे शहर में कोई ठिकाना ढूँढ ही लेगा
अताउर्रहमान जमील
ग़ज़ल
अदा वो नीची निगाहों की है कि जैसे 'ज़फ़र'
तलाश-ए-कुंज-ए-ग़ज़ालान-ए-ख़ुर्द-साला करें