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ग़ज़ल
शैख़ जो है मस्जिद में नंगा रात को था मय-ख़ाने में
जुब्बा ख़िर्क़ा कुर्ता टोपी मस्ती में इनआ'म किया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
हमारा लाशा बहाओ वर्ना लहद मुक़द्दस मज़ार होगी
ये सुर्ख़ कुर्ता जलाओ वर्ना बग़ावतों का अलम बनेगा
उमैर नजमी
ग़ज़ल
पहले मुझ पर बहुत भौंकता है कि मैं अजनबी हूँ कोई
और अगर घर से जाने का बोलूँ तो कुर्ता नहीं छोड़ता
तहज़ीब हाफ़ी
ग़ज़ल
ज्ञान दिए दुनिया को क्या-क्या लेकिन ख़ुद अंजान रहे
अपने तन पर अपना कुर्ता अक्सर ढीला हो जाता है
शकील आज़मी
ग़ज़ल
पर्दा पड़ता जो नहीं उस से ख़ुश-अंदामी पर
प्यारा लगता है तिरा कूर्ता-ए-लाही हम को
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
कहने लगे सब आज सवा नेज़े पर सूरज आयेगा
जिस दिन मैं ने मोम का कुर्ता अपने बदन पर पहना तो
नवाज़ असीमी
ग़ज़ल
क्या बताऊँ अपने मैं सोज़-ए-दरूँ का माजरा
था पहनने का इरादा ही कि कुर्ता जल गया