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ग़ज़ल
क्या क़यामत है कि 'ख़ातिर' कुश्ता-ए-शब थे भी हम
सुब्ह भी आई तो मुजरिम हम ही गर्दाने गए
ख़ातिर ग़ज़नवी
ग़ज़ल
क्यूँ न वहशत-ए-ग़ालिब बाज-ख़्वाह-ए-तस्कीं हो
कुश्ता-ए-तग़ाफ़ुल को ख़स्म-ए-ख़ूँ-बहा पाया
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
जला सकती है शम'-ए-कुश्ता को मौज-ए-नफ़स उन की
इलाही क्या छुपा होता है अहल-ए-दिल के सीनों में
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
कुश्ता-ए-नाज़ की गर्दन पे छुरी फेरो जब
काश उस वक़्त तुम्हें नाम-ए-ख़ुदा याद रहे
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
आमद-ए-ख़त से हुआ है सर्द जो बाज़ार-ए-दोस्त
दूद-ए-शम'-ए-कुश्ता था शायद ख़त-ए-रुख़्सार-ए-दोस्त
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
मैं अज़ल से सुब्ह-ए-महशर तक फ़रोज़ाँ ही रहा
हुस्न समझा था चराग़-ए-कुश्ता-ए-महफ़िल मुझे
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
क्यूँ झपक जाती है रह रह के तिरी बर्क़-ए-निगाह
ये झिजक किस लिए इक कुश्ता-ए-दीदार तो है
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
कहने को शम-ए-बज़्म-ए-ज़मान-ओ-मकाँ हूँ मैं
सोचो तो सिर्फ़ कुश्ता-ए-दौर-ए-जहाँ हूँ मैं
अमीक़ हनफ़ी
ग़ज़ल
सफ़-ए-मिज़्गाँ की जुम्बिश का किया इक़बाल ने कुश्ता
शहीदों के हुए सालार जब हम से तुमन बिगड़ा