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ग़ज़ल
तसव्वुर से लब-ए-लालीं के तेरे हम अगर रो दें
तो जो लख़्त-ए-जिगर आँखों से निकले इक रक़म निकले
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
सदा ''ना ना'' की यूँ तो गोश-ज़द होती रही है
लब-ए-लालीं से साफ़ इंकार पहले कब हुआ था