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ग़ज़ल
पेश-ए-आशिक़ चश्म-ए-गिर्यान-ओ-लब-ए-खंदाँ है एक
जल गया जो नख़्ल उस को बर्क़ और बाराँ है एक
ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर
ग़ज़ल
नफ़रत जो है दिल में लब-ए-ख़ंदाँ में नहीं है
जो बात है मज़मूँ में वो उनवाँ में नहीं है
सुलतान रशक
ग़ज़ल
शायद मैं उसे देखूँ 'हवस' बा-लब-ए-ख़ंदाँ
जाता हूँ इस उम्मीद पे गिर्यां पस-ए-महमिल
मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस
ग़ज़ल
ले के आई तो सबा उस गुल-ए-चीनी का पयाम
वो सही ज़ख़्म की सूरत लब-ए-ख़ंदाँ तो खुला
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
गुल-ए-रूख़्सारा का नज़्ज़ारा तू कर आँखें खोल
अंग्बीं चखने को फिर दिल लब-ए-ख़ंदान में आ
क़ासिम अली ख़ान अफ़रीदी
ग़ज़ल
पैमाने से पैमान-ए-वफ़ा बाँध लिया फिर
टूटी हुई 'ख़ंदाँ' की क़सम देख रहे हैं
किशन लाल ख़न्दां देहलवी
ग़ज़ल
उस बुत से मिल कर इस दिल-ए-नादाँ को क्या हुआ
क्यूँ आह-ओ-ज़ारी है लब-ए-ख़ंदाँ को क्या हुआ