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ग़ज़ल
हिर फिर के उन की आँख 'अदू से लड़े न क्यूँ
फ़ित्ना को करती है निगह-ए-फ़ित्ना-ज़ा पसंद
बेख़ुद देहलवी
ग़ज़ल
सामरी चश्म-ए-फ़ुसूँ-गर की फ़ुसूँ-साज़ी से
लब-ए-जाँ-बख़्श के होने से मसीहा है वो रुख़
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
लड़े थे साथ मिल कर हम चराग़ों के लिए लेकिन
हमारे घर अँधेरे हैं तुम्हारे घर उजाले हैं