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ग़ज़ल
रहे बे-ख़बर मिरे यार तक कभी इस पे शक कभी उस पे शक
मिरे जी को जिस की रही ललक वो क़मर-जबीं कोई और है
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
अजय सहाब
ग़ज़ल
कभी ज़िद ही नहीं करती कोई हसरत मिरे दिल की
मचलती है मगर मन की ललक आहिस्ता आहिस्ता
ख़ुशबू सक्सेना
ग़ज़ल
तुम से मिलता हूँ तो जीने की ललक जागती है
सोच में फ़िक्र में फैलाव सा आ जाता है