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ग़ज़ल
अब्दुस्समद क़ैसर
ग़ज़ल
मर रहे थे रफ़्ता रफ़्ता मेरे सब महसूर दोस्त
और मैं मस्जिद में रब्ब-ए-लम-यज़ल कहता रहा
इफ़्तिख़ार नसीम
ग़ज़ल
मोहब्बत ही ख़ुदा-ए-लम-यज़ल मालूम होती है
इसी को तो बक़ा हासिल है इस दुनिया-ए-फ़ानी में
अब्बास अली ख़ान बेखुद
ग़ज़ल
तेरी अपनी ज़ात में मुज़्मर है हुस्न-ए-लम-यज़ल
किस लिए सज्दे पे सज्दा जल्वा-गाह-ए-नाज़ पर
साबिर अबुहरी
ग़ज़ल
ये है शान-ए-बू-तुराबी ये है फ़ैज़-ए-लम-यज़ल
कर दिया है जिस ने हर ज़र्रे को 'अकबर' आफ़्ताब
शाह अकबर दानापुरी
ग़ज़ल
बे-नियाज़-ए-हर-दो-आलम हूँ ब-फ़ैज़-ए-लम-यज़ल
क़ल्ब में सूरत उतर के रह गई है यार की
तल्हा रिज़वी बर्क़
ग़ज़ल
ज़मीन-ओ-आसमाँ की सारी परतें चीख़ उठती हैं
वो वाहिद लम-यज़ल है सब दलीलें चीख़ उठती हैं