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ग़ज़ल
चाँदनी रातें बहार अपनी दिखाती हैं तो क्या
बे तिरे मुझ को तो लुत्फ़ ऐ मह-लक़ा मिलता नहीं
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
जो हम पे शब-ए-हिज्र में उस माह-ए-लक़ा के
गुज़रे हैं 'ज़फ़र' रंज-ओ-अलम कह नहीं सकते
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
अपनी मर्ज़ी से भी हम ने काम कर डाले हैं कुछ
लफ़्ज़ को लड़वा दिया है बेशतर मअ'नी के साथ
ज़फ़र इक़बाल
ग़ज़ल
कहाँ का तूर मुश्ताक़-ए-लक़ा वो आँख पैदा कर
कि ज़र्रा ज़र्रा है नज़्ज़ारा-गाह-ए-हुस्न-ए-जानाना
बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल
उस हूर-लक़ा को घर लाए हो तुम को मुबारक ऐ 'अकबर'
लेकिन ये क़यामत की तुम ने घर से जो निकलना छोड़ दिया
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
मेहंदी भी है मिस्सी भी है लाखा भी है लब पर
कुछ रंग हैं बे-रंग तुम्हारे कई दिन से