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ग़ज़ल
पस-ए-मुर्दन रहे क़ल्ब-ओ-जिगर में गर यही सोज़िश
तो लौह-ए-संग-ए-मरमर होगी अज़ ख़ुद आतिशीं पत्थर
हबीब मूसवी
ग़ज़ल
ख़ुदा-नुमा है बुत-ए-संग-ए-आस्ताना-ए-इश्क़
चलूँगा पा-ए-निगह बन के सू-ए-ख़ाना-ए-इश्क़
ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर
ग़ज़ल
फ़ज़ा में वहशत-ए-संग-ओ-सिनाँ के होते हुए
क़लम है रक़्स में आशोब-ए-जाँ के होते हुए
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ग़ज़ल
पैकर-ए-संग-ओ-आहंग जैसा तन्हा खड़ा हूँ वैसे तो
अंदर टूटा फूटा हूँ सालिम लगता हूँ वैसे तो
महबूब राही
ग़ज़ल
मौसम-ए-संग-ओ-रंग से रब्त-ए-शरार किस को था
लहज़ा-ब-लहज़ा जल गई दर्द-ए-बहार किस को था
शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी
ग़ज़ल
नियाज़-ओ-इज्ज़ मुझे नाज़-ए-संग-ए-दर से मिला
ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़ मिला जो तिरी नज़र से मिला
माहिर क़ुरैशी बरेलवी
ग़ज़ल
इसी मिट्टी का ग़म्ज़ा हैं मआरिफ़ सब हक़ाएक़ सब
जो तुम चाहो तो इस जुमले को लौह-ए-ज़र पे लिख देना
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
मुझ को मेरी आगही आँखों से ओझल कर गई
उस ने जो कुछ लौह-ए-जाँ पर लिख दिया रौशन हुआ
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
तुम इसे कह लो हिसाब-ए-दोस्ताँ-दर-दिल 'फ़ज़ा'
हम ने अपना नफ़अ' भी लौह-ए-ज़ियाँ पर लिख दिया