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ग़ज़ल
वही शहर है वही रास्ते वही घर है और वही लॉन भी
मगर इस दरीचे से पूछना वो दरख़्त अनार का क्या हुआ
बशीर बद्र
ग़ज़ल
शाम ढले इक लॉन में सारे बैठ के चाय पीते थे
मेज़ हमारा घर का था कुर्सी सरकारी होती थी
जानाँ मलिक
ग़ज़ल
बशीर बद्र
ग़ज़ल
लॉन में बैठा दरवाज़े पर दस्तक सुन कर चौंक पड़ा
कौन है जिस ने वहशत तोड़ी मुझ सा पत्थर चौंक पड़ा
इमरान राहिब
ग़ज़ल
नहीं आ सका जो मैं गुल-ज़मीनों के जश्न तक
तू ग़ुबार सा किसी सब्ज़ लान में आएगा