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ग़ज़ल
सोज़-ए-'मानी' का ज़माने में है किस को एहसास
आज फिर दर्द मिरे पहलू में बेकार उठा
सुलैमान अहमद मानी
ग़ज़ल
लब पे ऐश-ए-अहद-ए-माज़ी का है अफ़साना हनूज़
जा चुकी है फ़स्ल-ए-गुल और मैं हूँ दीवाना हनूज़
मानी जायसी
ग़ज़ल
अहल-ए-दिल से ये जहाँ ख़ाली भी रहता है कहीं
'उर्फ़ी'-ओ-'ग़ालिब' नहीं 'फ़ानी' नहीं 'मानी' तो है
मानी जायसी
ग़ज़ल
तिरी उम्मीद-ए-वस्ल-ए-हूर है इक ज़ोहद पर मब्नी
मगर वाइ'ज़ मुझे हर शेवा-ए-रिंदाना आता है
मानी जायसी
ग़ज़ल
ये मता-ए-ज़ीस्त भी होती है 'मानी' नज़्र-ए-मौत
इक नज़र आँखों में है और एक हसरत दिल में है
मानी जायसी
ग़ज़ल
मिरी हर साँस गोया एक गाम-ए-सई है 'मानी'
ये मैं जीता नहीं मसरूफ़ हूँ क़त्अ-ए-मनाज़िल में
मानी जायसी
ग़ज़ल
सर्द सी अक़्ल के हमराह रवाँ हैं 'मानी'
ताबिश-ए-इश्क़ मयस्सर मयस्सर ही नहीं आई है