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ग़ज़ल
मौज-ए-बला दीवार-ए-शहर पे अब तक जो कुछ लिखती रही
मेरी किताब-ए-ज़ीस्त को पढ़िए दर्ज हैं सब सदमात के नाम
मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद
ग़ज़ल
खिड़की के टूटे शीशों पर एक कहानी लिखती हैं
मंढे हुए पीले काग़ज़ से छन कर आती दो-पहरें
इशरत आफ़रीं
ग़ज़ल
जब तलक दुनिया में काग़ज़ और क़लम मौजूद हैं
बा-वफ़ा लिखती रहूँगी बेवफ़ा के सामने
जहाँ आरा तबस्सुम
ग़ज़ल
'समीना' मैं तो लफ़्ज़ों को फ़क़त लिखती हूँ काग़ज़ पर
तो फिर लफ़्ज़ों में ये कैसे शरारे जाग उठते हैं