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ग़ज़ल
जहाँ पर हों 'अरस्तू' और 'लुक़्माँ' ज़ीनत-ए-महफ़िल
वहाँ का सद्र-ए-महफ़िल कोई नादाँ हो नहीं सकता
निशात किशतवाडी
ग़ज़ल
सुना करता सदा बातें अगर बुक़रात-ओ-लुक़्माँ की
तो फिर उस बज़्म-ए-हस्ती के तरह-दारों से क्या कहता
ख़ालिद मीनाई
ग़ज़ल
जब तक माथा चूम के रुख़्सत करने वाली ज़िंदा थी
दरवाज़े के बाहर तक भी मुँह में लुक़्मा होता था
अज़हर फ़राग़
ग़ज़ल
शैख़-ए-हराम-लुक़्मा की पर्वा है क्यूँ तुम्हें
मस्जिद भी उस की कुछ नहीं मिम्बर भी कुछ नहीं
जौन एलिया
ग़ज़ल
मुँह में जब बात रुकी चूम लिया प्यार से मुँह
दम-ए-तक़रीर किसी शोख़ की लुक्नत अच्छी
रियाज़ ख़ैराबादी
ग़ज़ल
लियाक़त अली आसिम
ग़ज़ल
हर एक खाने से पहले झगड़ा खिलाएगा कौन पहले लुक़्मा
हमारे घर में तो ऐसी बातों से ही लड़ाई पड़ी रहेगी
आमिर अमीर
ग़ज़ल
मूसा की है क़सम तुझे और कोह-ए-तूर की
नूर-ओ-फ़रोग़-ए-जल्वा-ए-लमआ'न की क़सम