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ग़ज़ल
किसी के रोज़-ओ-शब बिकने की क़ीमत चंद लुक़्मे
तो क्या वो भी तिरे एहसान पर रक्खे हुए हैं
सरवर अरमान
ग़ज़ल
जब तक माथा चूम के रुख़्सत करने वाली ज़िंदा थी
दरवाज़े के बाहर तक भी मुँह में लुक़्मा होता था
अज़हर फ़राग़
ग़ज़ल
शैख़-ए-हराम-लुक़्मा की पर्वा है क्यूँ तुम्हें
मस्जिद भी उस की कुछ नहीं मिम्बर भी कुछ नहीं
जौन एलिया
ग़ज़ल
लियाक़त अली आसिम
ग़ज़ल
हर एक खाने से पहले झगड़ा खिलाएगा कौन पहले लुक़्मा
हमारे घर में तो ऐसी बातों से ही लड़ाई पड़ी रहेगी
आमिर अमीर
ग़ज़ल
था किसी का भी न मक़्सद सच को झुटलाना मगर
मुँह में रख कर लुक़्मा-ए-तर सच को सच कहता तो कौन
एहतराम इस्लाम
ग़ज़ल
सैकड़ों गुम-शुदा दुनियाएँ दिखा दीं उस ने
आ गया लुत्फ़ उसे लुक़्मा-ए-तर देने में