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ग़ज़ल
लुटेरे और क़ातिल हर जगह हैं शहर में 'अंजुम'
नहीं मा'लूम हासिल उन को किस की सरपरस्ती है
क़मर अंजुम
ग़ज़ल
मैं जहान-ए-बे-दिली में कहाँ ले के जाऊँ दिल को
मिरे दिल की घात में हैं यहाँ चार-सू लुटेरे
अहमद राही
ग़ज़ल
पास अगर सरमाया-ए-दिल है साए से होशियार रहो
इन राहों में भेस बदल कर चोर लुटेरे फिरते हैं
मुर्तज़ा बरलास
ग़ज़ल
फ़ाक़ा-मस्ती में भी जीने की अदा ले जाएँगे
ये लुटेरे मेरे घर से और क्या ले जाएँगे