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ग़ज़ल
है शब-ए-वस्ल मय-ए-वस्ल पियो तुम बे-ख़ौफ़
आँख क्यों आप की है जानिब-ए-दर कुछ भी नहीं
मिर्ज़ा क़ादिर बख़्श साबिर देहलवी
ग़ज़ल
तिरी उम्मीद-ए-वस्ल-ए-हूर है इक ज़ोहद पर मब्नी
मगर वाइ'ज़ मुझे हर शेवा-ए-रिंदाना आता है
मानी जायसी
ग़ज़ल
मय की सरमस्ती तिरे शे'रों में पाता हूँ 'वली'
तू मगर शैदा-ए-रंग-ए-'ग़ालिब'-ए-मय-नोश है
वली काकोरवी
ग़ज़ल
यही कमज़ोरियाँ अपनी रहें तो ऐ 'क़मर' इक दिन
मकानों में भी अपने रह नहीं सकते मकाँ वाले