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ग़ज़ल
साँझ-समय कुछ तारे निकले पल-भर चमके डूब गए
अम्बर अम्बर ढूँढ रहा है अब उन्हें माह-ए-तमाम कहाँ
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
तेरा नूर ज़ुहूर सलामत इक दिन तुझ पर माह-ए-तमाम
चाँद-नगर का रहने वाला चाँद-नगर लिख जाएगा
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
लोग हिलाल-ए-शाम से बढ़ कर पल में माह-ए-तमाम हुए
हम हर बुर्ज में घटते घटते सुब्ह तलक गुमनाम हुए
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
कहीं सुब्ह-ओ-शाम के दरमियाँ कहीं माह-ओ-साल के दरमियाँ
ये मिरे वजूद की सल्तनत है अजब ज़वाल के दरमियाँ
बद्र-ए-आलम ख़लिश
ग़ज़ल
मह-ए-कनआँ को मेरे इस मह-ए-कामिल से क्या निस्बत
ज़ुलेख़ा के मुलव्विस दिल को मेरे दिल से क्या निस्बत
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
वो हर्फ़-ए-आरज़ू जिस पर मुकम्मल ज़ब्त है अब तक
कहीं ऐसा न हो शर्मिंदा-ए-इज़हार हो जाए
कँवल एम ए
ग़ज़ल
अभी महल के दर-ओ-बाम ना-मुकम्मल हैं
ये किस ने ख़्वाब से आ कर जगा दिया मुझ को
बद्र-ए-आलम ख़ाँ आज़मी
ग़ज़ल
है इसी में क़ल्ब-ए-महज़ूँ शर्तिया कहता हूँ मैं
खोल मुट्ठी तेरी चोरी मह-लक़ा पकड़ी गई
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
इब्न-ए-चमन है तेरी वफ़ाओं पे जाँ-निसार
अपना बना के तू ने मुकम्मल क्या मुझे