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ग़ज़ल
ख़िलाफ़-ए-मा'मूल मूड अच्छा है आज मेरा मैं कह रही हूँ
कि फिर कभी मुझ से करते रहना ये भाव-ताव मुझे मनाओ
आमिर अमीर
ग़ज़ल
अहल-ए-वफ़ा से बात न करना होगा तिरा उसूल मियाँ
हम क्यूँ छोड़ें उन गलियों के फेरों का मामूल मियाँ
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
ये तो हर रोज़ का मामूल है हैरान हो क्यूँ
प्यास ही पीते हैं हम भूक ही हम खाते हैं
कफ़ील आज़र अमरोहवी
ग़ज़ल
यूँ किसे मिलती है मामूल से फ़ुर्सत लेकिन
हम तो इस लुत्फ़-ए-ग़म-ए-यार से भी जाते रहे
मुस्तफ़ा ज़ैदी
ग़ज़ल
मामूल पे साहिल रहता है फ़ितरत पे समुंदर होता है
तूफ़ाँ जो डुबो दे कश्ती को कश्ती ही के अंदर होता है
मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद
ग़ज़ल
शब भर इक आवाज़ बनाई सुब्ह हुई तो चीख़ पड़े
रोज़ का इक मामूल है अब तो ख़्वाब-ज़दा हम लोगों का
अभिषेक शुक्ला
ग़ज़ल
अब के मुख़्तार ने मुहताज की दीवार का क़द
जितना मामूल है उतना भी निकलने न दिया