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ग़ज़ल
मानिंद-ए-ख़ामा तेरी ज़बाँ पर है हर्फ़-ए-ग़ैर
बेगाना शय पे नाज़िश-ए-बेजा भी छोड़ दे
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
'मीर' के मानिंद अक्सर ज़ीस्त करता था 'फ़राज़'
था तो वो दीवाना सा शा'इर मगर अच्छा लगा
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
अदू को छोड़ दो फिर जान भी माँगो तो हाज़िर है
तुम ऐसा कर नहीं सकते तो ऐसा हो नहीं सकता